पढना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो
पढना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लडना सीखो
ओ सडक बनाने वालो, ओ भवन उठाने वालो
खुद अपनी किस्मत का फैसला अगर तुम्हें करना है
ओ बोझा ढोने वालो, ओ रेल चलाने वालो
अगर देश की बागडोर को कब्जे में करना है
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लडना सीखो
पूछो मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं?
पढो, तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?
पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?
पढो, तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों हैं?
पढो, लिखा है दीवारों पर महनतकश का नारा
पढो, पोस्टर क्या कहता है, वो भी दोस्त तुम्हारा
पढो, अगर अंधे विश्वासों से पाना छुटकारा
पढो, किताबें कहती हैं- सारा संसार तुम्हारा
पढो, कि हर मेहनतकश को उसका हक दिलवाना है
पढो, अगर इस देश को अपने ढंग से चलवाना है
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लडना सीखो
-सफदर हाशमी
3 टिप्पणियां:
पर यह भी तो सच है की, कम्युनिस्म बना रहे इसके लिए ज़रूरी है की भूखे नंगे और सर्वहारा भी बने रहें, वर्ना कम्युनिस्म की दुकान बंद हो जाएगी. पश्चिम बंगाल में आज़ादी के बाद से लगातार कम्युनिस्टों का राज रहा है, वहां से भूख, बदहाली और गरीबी क्यों नहीं मिटी? क्यों वहां का मजदूर आज भी गरीब है? क्यों वहां भी बाकी पिछड़े प्रदेशों की तरह बिजली पानी भ्रष्टाचार और सड़क की समस्या अभी भी काबिज है?
सफ़दर हाशमी का पूरा जीवन-संघर्ष जैसे इस क्रांतिकारी गाने में पिरो दिया गया
हो.. सच कहूँ तो नुक्कड़ नाटक और कविता के सम्मिलित प्रभाव को जिस बखूबी से
उन्होंने सरंजाम दिया हैं..वह अन्यत्र दुर्लभ ही रहा हैं... 'मशीन' 'और 'औरत'
नाटकों से प्रारंभ हुए उनके नाटकों में इसे आसानी से सहजता और स्वाभाविकता के
सौन्दर्य के सम्मिश्रण में इसे देखा जा सकता हैं...'' पढना-लिखना सीखो ओ मेहनत
करने वालो/पढना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो/क ख ग घ को पहचानो/अलिफ को पढना
सीखो,/अ आ इ ई को हथियार/बनाकर लडना सीखो...'' में जिस खूबसूरती से आम आदमी को
शब्दों की ताकत से परिचित करवाया है वह उनकी एक अन्य कविता ''किताबें करती हैं
बातें...'' में भी देखा जा सकता हैं... और वो इस सबके माध्यम से जो संदेसा देना
चाहते हैं वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं... यथा- "पूछो मजदूरी की खातिर लोग भटकते
क्यों हैं?/पढो, तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?/पूछो, मां-बहनों
पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?/पढो, तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों
हैं?..." भय, भूख, बेकाकी और बेरोजगारी उनके सृजन का मूल आधार रहा हैं... और
इसी के माद्ध्यम से होने वाले शोषण से बचाना उनका मकसद... इसीलिए वो कहते हैं
की "पढो, लिखा है दीवारों पर महनतकश का नारा/पढो, पोस्टर क्या कहता है, वो भी
दोस्त तुम्हारा/पढो, अगर अंधे विश्वासों से पाना छुटकारा/पढो, किताबें कहती
हैं- सारा संसार तुम्हारा/पढो, कि हर मेहनतकश को उसका हक दिलवाना है/पढो, अगर
इस देश को अपने ढंग से चलवाना है..." अंतत: एक बेहतर चयन के लिए बधाई.
सफ़दर हाशमी का पूरा जीवन-संघर्ष जैसे इस क्रांतिकारी गाने में पिरो दिया गया हो.. सच कहूँ तो नुक्कड़ नाटक और कविता के सम्मिलित प्रभाव को जिस बखूबी से उन्होंने सरंजाम दिया हैं..वह अन्यत्र दुर्लभ ही रहा हैं... 'मशीन' 'और 'औरत' नाटकों से प्रारंभ हुए उनके नाटकों में इसे आसानी से सहजता और स्वाभाविकता के सौन्दर्य के सम्मिश्रण में इसे देखा जा सकता हैं...'' पढना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो/पढना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो/क ख ग घ को पहचानो/अलिफ को पढना सीखो,/अ आ इ ई को हथियार/बनाकर लडना सीखो...'' में जिस खूबसूरती से आम आदमी को शब्दों की ताकत से परिचित करवाया है वह उनकी एक अन्य कविता ''किताबें करती हैं
बातें...'' में भी देखा जा सकता हैं... और वो इस सबके माध्यम से जो संदेसा देना चाहते हैं वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं... यथा- "पूछो मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं?/पढो, तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?/पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?/पढो, तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों हैं?..." भय, भूख, बेकाकी और बेरोजगारी उनके सृजन का मूल आधार रहा हैं... और इसी के माद्ध्यम से होने वाले शोषण से बचाना उनका मकसद... इसीलिए वो कहते हैं
की "पढो, लिखा है दीवारों पर महनतकश का नारा/पढो, पोस्टर क्या कहता है, वो भी दोस्त तुम्हारा/पढो, अगर अंधे विश्वासों से पाना छुटकारा/पढो, किताबें कहती हैं- सारा संसार तुम्हारा/पढो, कि हर मेहनतकश को उसका हक दिलवाना है/पढो, अगर इस देश को अपने ढंग से चलवाना है..." अंतत: एक बेहतर चयन के लिए बधाई.
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